
एक गाँव में मुनिया नाम की एक ज़िद्दी लड़की रहती थी। उसके पिता बस ड्राइवर थे, और बचपन से ही मुनिया का सपना था कि वह भी बस चलाए। वह अक्सर कहती, “बाबा, जब मैं बड़ी हो जाऊँगी, तो आपकी तरह बस चलाऊँगी!” पिता हँसकर जवाब देते, “ज़रूर, बेटी! जल्दी बड़ी हो जाओ, मैं तुम्हें अपनी बस सौंप दूँगा।”
समय बीता, मुनिया जवान हुई और एक दिन पिता से बोली, “अब आपका वादा पूरा करने का वक्त आ गया है।” पिता हैरान होकर बोले, “यह कैसी बातें? लड़कियाँ बस नहीं चलातीं! मैं बस तुम्हारे चचेरे भाई कुंवर को दूँगा।” मुनिया आँसू बहाती हुई चली गई। माँ-बाप चिंतित होकर बात करने लगे: “बचपन का मज़ाक उसे सच लगने लगा। अब क्या होगा?”

कुछ दिन बाद, कुंवर घर आया। पिता ने बस की चाबी उसे देने की बात कही। मुनिया ने गुस्से में कहा, “यह अन्याय है! मैंने जीवन भर यही सपना देखा है!” कुंवर ने समर्थन किया: “चाचा, वादा निभाइए। मुनिया को मौका दीजिए।” अंततः चाबी मुनिया को मिली।

कुंवर ने मुनिया को बस चलाना सिखाया। लोगों ने पहली बार एक लड़की को बस चलाते देखा तो हैरान रह गए। धीरे-धीरे मुनिया की बस मशहूर हो गई। पिता ने माना: “तुमने साबित कर दिया कि लड़कियाँ कुछ भी कर सकती हैं!”

मगर दूसरे ड्राइवरों को यह पसंद नहीं आया। एक रात, पिंटू और उसका साथी चुपके से मुनिया की बस के पहिए पंक्चर करने पहुँचे। पिंटू ने दोनों पहिए खराब कर दिए। अगले दिन, बस अनियंत्रित होकर दीवार से टकरा गई। मुनिया की मौत हो गई, और उसकी आत्मा एक चुड़ैल बन गई।

गाँव वाले दौड़े आए। मुनिया के माता-पिता विलाप करने लगे। तभी चुड़ैल बनी मुनिया ने पिंटू और उसके साथी का गला पकड़ लिया! “तुमने मुझे मारा! अब तुम्हारी बारी है!” कुंवर ने हस्तक्षेप किया: “रुको! इन्हें कानून सज़ा देगा। तुम्हारी बस फिर से चलेगी, और सभी तुम्हारे साथ हैं।”\
पुलिस ने दोषियों को गिरफ्तार किया। मुनिया की बस को ठीक किया गया। अब वह “भूतिया बस” बन चुकी थी, लेकिन गाँव वाले उसमें बैठने लगे। मुनिया की आत्मा शांत हुई, और वह रहस्यमय तरीके से बस चलाती रही… अपनी लगन और न्याय की मिसाल बनकर।